भारतवर्ष की प्राकृतिक संरचना के कारण यहाँ विविधता का होना स्वाभाविक है। भौगोलिक विविधता, उपज के क्षेत्र की विविधता, प्राणी वर्ग की तथा वनस्पति की विविधता, धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, भाषायी विविधता को भी देखा जा सकता है। किन्तु इन सब विविधताओं के बाद भी भारत एक अखण्ड राष्ट्र है। प्रत्येक राज्य को विकास के लिए समान अवसर प्रदान किये जाने को संवैधानिक प्रावधान है। फिर भी विषमताएँ विद्यमान हैं ये विषमताएँ जब क्षेत्र या प्रदेशों के मध्य होती हैं तो इन्हें क्षेत्रीय विषमताएँ कहा जाता है। यहाँ प्रदेश की सीमा में हम राज्य ले सकते हैं अथवा जिला या खण्ड आदि भी ले सकते हैं। क्षेत्रीय असमानता को दो रूपों में देखा जा सकता है- प्रथम अन्तर्राज्यीय समानता या विषमता इसमें प्रादेशिक या क्षेत्रीय विषमताओं का अध्ययन विभिन्न राज्यों के बीच किया जा सकता है। द्वितीय-राज्य के विभिन्न जिलों या खण्डों के मध्य विषमता का अध्ययन, जिसे राज्य के अन्दर की असमानता या विषमता कहते हैं।
सामान्य शब्दों में कहें तो क्षेत्रीय विषमता किसी क्षेत्र विशेष का अन्य क्षेत्र की तुलना में पिछड़ना है। यह पिछड़ना या विषमता आर्थिक, प्राकृतिक, जनसांख्यिक, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं, रोजगार के अवसरों, विकास के लिए आवश्यक ढाँचा आदि किसी भी आधार पर हो सकती हैं।
शिक्षा के सन्दर्भ में इस प्रकार की विषमताएँ शैक्षिक अवसरों की असमानता उत्पन्न करती हैं तथा शिक्षा के सार्वजनीकरण के मार्ग में बाधा उत्पन्न करती हैं। क्षेत्रीय विषमताएँ सदैव विद्यमान रहेंगी इन्हें दूर करना कठिन है किन्तु इन पर नियन्त्रण प्राप्त करना तथा शिक्षा को इनके दुष्प्रभाव को बचाना आवश्यक है। राष्ट्र में समस्त क्षेत्रों का सन्तुलित विकास करना सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक आवश्यकता के साथ-साथ आर्थिक जरूरत भी है। किसी क्षेत्र विशेष का विकास वहाँ के निवासियों में आत्म-गौरव का भाव स्थापित करता है तथा उन्हें श्रेष्ठता की ओर प्रवृत्त होने के लिए प्रेरित करता है। इसके विपरीत प्रगति में पिछड़े राज्य या क्षेत्र के व्यक्तियों को संघर्ष एवं अभावों का सामना करना पड़ता है तथा निरन्तर कठिनाइयों से जूझते रहने के कारण उन्हें श्रम एवं शक्ति का उचित प्रतिफल नहीं मिल पाता। शिक्षक के लिए क्षेत्रीय विषमताओं के सम्प्रत्यय का ज्ञान आवश्यक है क्योंकि अपने क्षेत्र की न्यूनताओं व वैशिष्ट्य के आधार पर शिक्षक राष्ट्रीय विकास के लिए लक्ष्यों को निर्धारित कर योजना को क्रियान्वित करता है। क्षेत्रीय विषमताओं का ज्ञान जिन कारकों से होता है उन्हें क्षेत्रीय विषमता के सूचक कहा जाता है।
क्षेत्रीय विषमता के सूचक
सामान्यतया विभिन्न क्षेत्रों के मध्य विषमता के सूचक भिन्न-भिन्न होते हैं। विभिन्न सूचकों में से परिस्थितियों व समय के अनुसार सूचकों की भूमिका परिवर्तित होती रहती है। सामान्य रूप से निम्नलिखित श्रेणियों के सूचक विषमता का स्वरूप निर्धारित हैं
(1) प्रतिव्यक्ति आय (निर्धनता व बेरोजगारी के सूचक),
(2) कृषिगत सूचक,
(3) औद्योगिक सूचक,
(4) राज्यवार वित्तीय आवंटन से जुड़े सूचक,
(5) सामाजिक सेवाओं से जुड़े सूचक,
(6) आधार ढाँचे से जुड़े सूचक ।
क्षेत्रीय विषमता के कारण
क्षेत्रीय विषमता के कुछ कारण स्वाभाविक हैं तथा कुछ मानव द्वारा उत्पन्न किये गये हैं। इन दोनों ही प्रकार के कारणों से राष्ट्र का सन्तुलित विकास अवरुद्ध होता है।
1. प्राकृतिक तथा आर्थिक संसाधनों में अन्तर- जलवायु, वर्षा, मिट्टी, खनिज पदार्थ, वन-सम्पदा आदि की दृष्टि से एक राज्य दूसरे राज्य के समान नहीं हो सकता। इसका परिणाम कृषि-उपज तथा उद्योग-धन्धों पर दिखाई देता है। उपजाऊ भूमि एवं जल की प्रचुरता वाले राज्य पंजाब तथा निरन्तर जल की कमी एवं सूखे की समस्या का सामना करने वाले राज्य राजस्थान की तुलना नहीं की जा सकती। उपलब्ध आर्थिक संसाधनों का एक बड़ा भाग अकाल एवं राहत कार्यों में व्यय करने वाला राज्य अपनी विशेषताओं में श्रेष्ठ हो सकता है।
2. सांस्कृतिक परम्पराएँ- कुछ क्षेत्रों की सामाजिक-सांस्कृतिक परम्पराएँ भी क्षेत्रीय विषमता का कारण होती हैं। लिंगभेद, जाति-प्रथा, रूढ़ियों का पालन करना तथा नए के प्रति भय का भाव विकास की गति को रोक देते हैं। परम्पराएँ अपने स्वच्छ एवं स्वस्थ रूप में विकास में बाधा उत्पन्न नहीं करती लेकिन उनमें कट्टरता तथा संकीर्ण मनोवृत्ति का समावेश क्षेत्रों के लिए प्रगति में बाधा है। जिन क्षेत्रों में सांस्कृतिक परम्पराएँ सामाजिक विकास में सहायक होती हैं वे विकास कर आगे बढ़ जाते हैं।
3. राजनीतिक कारण- राजनीतिक प्रभाव का प्रयोग सर्वविदित है। विकसित क्षेत्रों का विशिष्ट वर्ग अपने अनुभवों तथा शिक्षा से प्रभावित कर राजनीति में पैठ स्थापित कर लेता है तथा अपने क्षेत्र के लिए अधिकाधिक सुविधाओं को जुटाने में सफल हो जाता है। निहित स्वार्थों को त्यागकर सम्पूर्ण राष्ट्र के हित के लिए योजनाएँ लेने से असन्तुलन दूर हो सकता है।
4. प्रशासनिक कारण-क्षेत्रीय विषमताओं का एक कारण प्रशासनिक भी है जिस कारण भिन्न-भिन्न क्षेत्रों का राजकीय योजनाओं में धनराशि का आवंटन समुचित नहीं हो पाता। पंचवर्षीय योजनाओं में राज्यों की विकास दर में भिन्नता का कारण प्रशासनिक भी हैं। सुनियोजित विकास के लिए आर्थिक व्यवस्था का सुदृढ़ होना अनिवार्य है। राजकीय कोष के अतिरिक्त अन्य आर्थिक स्रोत प्रभावपूर्ण नहीं होते। वित्तीय व्यवस्था के अतिरिक्त अन्य प्रशासनिक सुविधाएँ भी राज्य की विकास प्रक्रिया को निर्धारित करती हैं।
5. निवेश की मात्रा में अन्तर- किसी भी क्षेत्र में पूँजी कानिवेश जिस अनुपात में किया जाता है वहाँ का विकास भी उसी अनुपात में होता है। कम निवेश कम विकास तथा अधिक निवेश अधिक समृद्धि व विकास प्राय: होता यह है कि विकसित क्षेत्रों में निवेश भी अधिक किया जाता है जिससे विकसित व पिछड़े क्षेत्रों के बीच विषमताएँ स्थायी हो जाती हैं।
क्षेत्रीय विषमताओं के प्रभाव
(1) राष्ट्रीय एकता में बाधा,
(2) अलगाव का भाव,
(3) विकास की गति पर प्रभाव,
(4) नए राज्यों की माँग
क्षेत्रीय विषमताओं के कारण राष्ट्र के नागरिकों में असन्तोष की भावना उत्पन्न होती है, वैमनस्य का भाव राष्ट्रीय एकीकरण के लिए बाधा उत्पन्न करता है। सभी क्षेत्रों का सन्तुलित समन्वित विकास होने की स्थिति में इस स्थिति से बचा जा सकता है। हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक एक राष्ट्र के निवासी होने पर भी क्षेत्रीयता का भाव विकसित होने से राष्ट्र के पृथकतावाद को बल मिलता है। निहित स्वार्थों के लिए संकीर्ण मनोवृत्ति के लोग इसका लाभ उठाते हैं तथा क्षेत्र, उपक्षेत्र के आधार पर समाज को बाँटने का प्रयास करते हैं जिससे क्षेत्रीय असन्तुलन और अधिक बढ़ जाता है। क्षेत्रीयता के आधार पर प्राय: राष्ट्र-विरोधी तथा राष्ट्र के विकास की गति में बाधक क्रियाएँ भी विकसित होती हैं जिससे राष्ट्रीय प्रगति में बाधा उत्पन्न होती है। अपने उग्र रूप में आने पर क्षेत्रीय असन्तुलन या विषमताएँ अलग राज्य की माँग का रूप धारण कर लेती हैं। इससे आन्दोलन होते हैं और छोटे-छोटे राजनीतिक दल शक्ति सम्पन्न बन अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं।
क्षेत्रीय विषमताओं को कम करने के सुझाव
क्षेत्रीय विषमता को दूर करने के लिए निम्नलिखित उपाय अपनाए जा सकते हैं
1. बहुस्तरीय नियोजन प्रणाली-राज्य, जिला तथा अन्य नीचे के स्तर पर नियोजन प्रणाली में कार्यकुशलता लाने के साथ-साथ केन्द्र से राज्यों तथा राज्यों से जिलों को वित्तीय साधनों का हस्तान्तरण ‘ पिछड़ेपन के मुख्य आधार पर किया जाना चाहिए। भौतिक साधनों का सर्वेक्षण कर अज्ञात आर्थिक साधनों की खोज करने से भी अल्पविकसित क्षेत्र स्वयं को विकसित क्षेत्र में समतुल्य ला सकते हैं।
2. अन्तर्राष्ट्रीय एजेन्सियों का सहयोग-क्षेत्रीय असन्तुलन को दूर करने के लिए। विदेशों से तकनीकी तथा वित्तीय सहयोग लिया जाना चाहिए। लेकिन उनकी शर्तों को सावधानीपूर्वक जान लेना अनिवार्य होगा। उनके प्रच्छन्न हितों के लिए समझौता राष्ट्रीय हित में न होकर विपरीत होग।
3. आधार ढाँचे को सुदृढ़ करने की नीति-ऊर्जा, परिवहन, जलापूर्ति आदि का समुचित विकास आधार ढाँचे का अंग है। इन्हें उत्पादन एवं सर्वसाधारण के उपयोग, दोनों दृष्टि से विकसित किया जाना अनिवार्य है। ये पूँजी-निर्माण में भी सहायता करते हैं। न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम (एम. एन. पी.) के अन्तर्गत भी इनको बढ़ाना आवश्यक है इनसे ग्रामीण क्षेत्रों में सुविधाएँ उपलब्ध कराने में सरलता रहती है। पिछड़े हुए क्षेत्रों में आधार ढाँचे को सुदृढ़ करना क्षेत्रीय विषमता को नियन्त्रित करने का उपाय है। नगरीय एवं ग्रामीण क्षेत्रों के आधार पर व्याप्त विषमताओं को दूर करने के लिए भी आधार-ढाँचा सुदृढ़ होना चाहिए।
4. केन्द्रित प्रवर्तित परियोजनाएँ-केन्द्र द्वारा केन्द्र-प्रवर्तित योजनाओं को राज्यों को हस्तान्तरित करने तथा विभिन्न विकास कार्यक्रमों की सहायता से भी क्षेत्रीय विषमताएँ दूर की जा सकती हैं। राज्य अपनी आवश्यकतानुसार महिला विकास, बाल-विकास, साक्षरता, स्वास्थ्य सेवा एवं अन्य कल्याणकारी योजनाओं में केन्द्र से मिले धन का उपयोग कर सकेगा।
क्षेत्रीय असन्तुलन या विषमताओं को दूर करना राष्ट्रीय विकास के लिए आवश्यक है। इस दिशा में केन्द्र, राज्य एवं गैर-सरकारी संगठनों को सम्मिलित प्रयास करने होंगे तभी वांछित सफलता प्राप्त हो सकेगी। शिक्षा आर्थिक विकास की जन्मदात्री है। शिक्षा द्वारा इस दिशा में वांछित प्रयास किया जा सकता है। शैक्षिक योजनाओं में इस विषमता को दूर करने के प्रयास भी सम्मिलित किये जाने चाहिए।