मनुस्मृति में उल्लेख आया है कि “ईश्वर ने विश्व की समृद्धि और कल्याण के लिए मुख, बाँह, जंघा तथा पैर से क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की रचना की।” इस प्रकार मनुस्मृति समाज को धर्म और कर्म के आधार पर चार वर्गों या वर्णों में विभाजित करती है। ये वर्ग या वर्ण हैं-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र । वर्ण व्यवस्था का यह आधार वास्तव में कर्म था। मनु के मत में ब्राह्मण की उत्पत्ति मुख से हुई हैं, अतः उसका कर्तव्य – पढ़ना-पढ़ाना, यज्ञ कराना, दान देना, दान लेना आदि हैं। क्षत्रियों का कर्तव्य प्रजा की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, वेद पढ़ना तथा व्यवस्था करना है क्योंकि उनकी उत्पत्ति ब्रह्मा की भुजा से हुई है। वैश्य ब्रह्मा के मध्य भाग से उत्पन्न हुए हैं, अतः उनका प्रमुख कर्त्तव्य है— कृषि करना, व्यापार करना, पशुपालन, दान देना, यज्ञ करना आदि। शूद्र का कर्त्तव्य उपरोक्त तीन वर्णों की सेवा करना मात्र है। मनु ने समाज व्यवस्था को बनाए रखने के लिए इन चारों वर्णों को अपने-अपने लिए गुणानुसार निर्धारित कर्तव्यों का सम्पादन करने के लिए कहा है, जिससे समाज में व्यवस्था बनी रहे।
मनु की उपर्युक्त वर्ण व्यवस्था की तुलना पुखराज जैन प्लेटो से करते हुए लिखते हैं- “यह व्यवस्था (वर्ण व्यवस्था) प्रसिद्ध यूनानी विद्वान प्लेटो के न्याय सिद्धान्त से मिलती-जुलती है। यद्यपि प्लेटो ने समाज को तीन वर्गों में बाँटा है— दार्शनिक, सैनिक और उत्पादक वर्ग । मनु के ब्राह्मण की तुलना हम प्लेटो के दार्शनिक वर्ग से कर सकते हैं। क्षत्रिय की तुलना प्लेटो के सैनिक वर्ग से कर सकते हैं और शूद्रों की तुलना प्लेटो की व्यवस्था में दासों से कर सकते हैं। अन्तर केवल इतना है कि मनु शूद्र वर्ण को समाज व्यवस्था में ही स्थान देता है जबकि प्लेटो समाज व्यवस्था से बाहर। मनु की व्यवस्था में शूद्र उसका अनिवार्य अंग है। मनु की व्यवस्था समाज की चौखम्बा व्यवस्था है। निश्चित रूप से यह प्लेटो की त्रिखम्बा व्यवस्था से अच्छी है। इसलिए आज तक चल रही है।” वे आगे लिखते हैं-” उत्कृष्टता इसलिए भी है क्योंकि वह प्लेटो की तरह शासन कार्य अपने दार्शनिक वर्ग (ब्राह्मण) को ……. प्लेटो से मनु की नहीं सौंपता । वह इसे अपने योद्धा वर्ग क्षत्रियों को सौंपता है जो ब्राह्मण के मस्तिष्क से शासन करेगा। इस प्रकार प्लेटो से मनु की समाज व्यवस्था अधिक वैज्ञानिक है।”
मनु की आश्रम व्यवस्था
मनु ने सम्पूर्ण मानव जीवन को चार आश्रमों में विभाजित किया-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास आश्रम । आश्रम व्यवस्था जीवन के विभिन्न स्तरों में व्यक्ति को भिन्न-भिन्न उत्तरदायित्व सौंप कर उसके जीवन को सफल बनाने का प्रयास करती है। इन चार आश्रमों में प्रथम तीन आश्रम सामूहिक जीवन को सफल बनाने के लिए है तथा अन्तिम आध्यात्मिक क्रिया द्वारा मोक्ष प्राप्त करने के लिए है। प्रत्येक पहला आश्रम व्यक्ति को दूसरे आश्रम में प्रवेश करने के लिए तैयार करता है। अन्य शब्दों में, आश्रम व्यवस्था का अर्थ उस व्यवस्था से है जिसमें व्यक्ति अनेक कार्यात्मक स्तरों पर विश्राम करता हुआ अपने अन्तिम ‘लक्ष्य’मोक्ष’ की ओर बढ़ता है।
विभिन्न आश्रमों में प्रवेश की आयु-मनु ने मानव की आयु 100 वर्ष के लगभग मानी तथा सम्पूर्ण जीवन को चार आश्रमों में विभाजित किया— ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास। ब्रह्मचर्य अवस्था में प्रत्येक व्यक्ति से 25 वर्ष की आयु तक कठोर संयम व नियम से रहने की आशा की जाती थी। यह अवस्था अध्ययन तथा ज्ञान प्राप्त करने की मानी जाती थी। (प्रत्येक व्यक्ति इस अवस्था में अपने को शारीरिक तथा मानसिक रूप से गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने योग्य बनाने का प्रयत्न करता था।
25 वर्ष के पश्चात् व्यक्ति को गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने की आज्ञा थी। 25 वर्ष से 50 -वर्ष तक मनुष्य काम भावना की संतुष्टि करने के साथ-साथ सन्तान का लालन-पालन करता था। 50 वर्ष की आयु समाप्त कर लेने के पश्चात् व्यक्ति वानप्रस्थ तथा संन्यास आश्रम की तैयारी करता था। 50 वर्ष से 75 वर्ष तक की अवस्था का समय वनों में स्थित आश्रमों में व्यतीत करना होता था। आश्रमों में आध्यात्म तथा दर्शन की शिक्षा प्रदान की जाती थी। जीवन के गूढ़तम रहस्यों को समझने का प्रयत्न तथा मोक्ष प्राप्ति के उपायों पर विचार इन आश्रमों में होता था। 75 वर्ष पार करने के पश्चात् व्यक्ति संन्यास ग्रहण करता था और भौतिक संसार से अपना मुख मोड़ लेता था तथा जन उपकार में अपने जीवन को लगा देता था। मनु की यह आश्रम व्यवस्था वास्तव में एक महान मस्तिष्क की उपज थी। मनु ने चारों आश्रमों की दिनचर्या तथा जीवनयापन विधि का भी उल्लेख किया है, जो निम्नलिखित है—
(1) ब्रह्मचर्य आश्रम-ब्रह्मचर्य आश्रम में व्यक्ति का शारीरिक तथा मानसिक विकास किया जाता था। बालक अपने परिवार में माता-पिता के साथ न रहकर गुरु के यहाँ जाकर रहता था। गुरु ही उसको वेदों तथा धर्म प्रन्थों की शिक्षा प्रदान करता था। छात्र के लिए आवश्यक था कि वह अपने गुरु के प्रति श्रद्धा रखे तथा उसकी प्रत्येक आज्ञा का पालन करे। गुरु की आज्ञा की अवहेलना करना एक गम्भीर अपराध माना जाता था। गुरु के पशुओं को चराना, गुरु के प्रत्येक आदेश का पालन करना प्रत्येक ब्रह्मचारी के लिए आवश्यक था। गुरु ही उसका वास्तविक निर्माता था। गुरु अपने ब्रह्मचारी छात्रों को मानसिक विकास के लिए वेदों का पठन-पाठन तथा यज्ञ विधियों का ज्ञान कराता था। छात्र गुरु-गृह के मुक्त वातावरण में प्रकृति के निकट आकर अपना शारीरिक विकास भी करता था। क्षत्रिय बालक अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा प्राप्त करते थे। मनु ने शूद्रों के लिए शिक्षा की कोई व्यवस्था का उल्लेख नहीं किया है।
(2) गृहस्थ आश्रम – ब्रह्मचर्य 25 वर्ष की आयु पूरी होने पर समाप्त हो जाता था और इससे उसका समावर्तन (घर लौटना) होता। अन्य शब्दों में, अब वह विवाह कर गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता है। इसका अपना अलग महत्त्व है क्योंकि इस आश्रम में ही व्यक्ति अनेक जन्मों के ऋणों को चुकाने का प्रयास करता है। पंच यज्ञों को करना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य माना गया है। इनमें से चार यज्ञ गृहस्थ आश्रम में ही होते हैं। विवाह करके गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने का उद्देश्य धर्म पालन करना, सन्तान उत्पन्न करना यौन क्रियाओं को नियमित करना माना गया है। मनु का विचार है कि स्त्री-पुरुषों के सम्बन्धों को नियमित करने के लिए विवाह संस्था का निर्माण किया गया है।
गृहस्थ आश्रम में व्यक्ति पुरुषार्थ की पूर्ति करता है। पुरुषार्थ चार होते हैं—धर्म, अर्थ, और मोक्ष। मानव जीवन का प्रमुख लक्ष्य धार्मिक, आर्थिक और जैविकीय क्रियाओं को पूरा करके मोक्ष प्राप्त करना है। अन्य शब्दों में गृहस्थाश्रम में रहते हुए व्यक्ति अपनी पत्नी के साथ सम्पर्क कर सन्तान उत्पन्न करता है, बच्चों का लालन-पालन करता है, अर्थ उपार्जन करता है तथा विभिन्न सामाजिक क्रियाओं में भाग लेता है।
एक गृहस्थ के लिए, आवश्यक माना गया है कि वह स्वाध्याय के द्वारा ऋषियों को, यज्ञ के द्वारा देवताओं को तथा श्राद्ध के द्वारा पितरों को सन्तुष्ट करे। स्त्री के प्रति आकर्षण, सन्तान की इच्छा तथा भौतिक सुखों की लालसा आदि मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ हैं जिनकी पूर्ति वह गृहस्थ आश्रम में ही प्रवेश करके करता है। इन लालसाओं और इच्छाओं के तृप्त हो जाने के पश्चात् ही व्यक्ति आगामी आश्रमों में प्रवेश करने योग्य बन पाता है।
(3) वानप्रस्थ आश्रम – वानप्रस्थ का अर्थ है-“वन की ओर प्रस्थान करना।” 50 वर्ष की आयु पूरी कर लेने के पश्चात् व्यक्ति वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करता था। इस अवस्था में व्यक्ति अपने परिवार, कुल और समाज को छोड़कर सम्पूर्ण समाज को अपना कुटुम्ब समझते हुए उसकी सेवा करता है। यह सेवा निःस्वार्थ और परोपकार की भावना से प्रेरित होकर की जाती थी। वन में वानप्रस्थी सादा और सरल जीवन व्यतीत करता था तथा अपने पास आने वाले छात्रों को ज्ञान प्रदान करता था ।
वानप्रस्थी उन सभी कार्यों को करता था जो उसमें विरक्ति की भावना उत्पन्न करते थे, जैसे वन में उत्पन्न होने वाले फल तथा जड़ी-बूटियों को खाना, वृक्ष की छाल तथा मृगचर्म को धारण करना । ग्रीष्मकाल में भी अग्नि के पास बैठकर तपस्या करना। इन सभी कार्यों का उद्देश्य शारीरिक सुखों के प्रति उदासीनता उत्पन्न करना था। वास्तव में वानप्रस्थाश्रम में ही व्यक्ति इहलोक की सभी इच्छाओं, कामनाओं तथा लोभ से अपने को मुक्त करने, परलोक के सुधार के लिए तथा मोक्ष प्राप्ति के लिए रास्ता तैयार करने के लिए संयमी जीवन व्यतीत करता था।
संक्षेप में, वानप्रस्थाश्रम स्वाध्ययन तथा आत्म-चिन्तन का काल होता है और अपने अनुभव द्वारा ज्ञान प्राप्त कर वह समाज को दान करता है। मनु के मत में वानप्रस्थी को वेदाभ्यासी, शीत-धूप को सहने वाला, उपकार व सेवा की भावना से पूर्ण, ज्ञान को वितरित करने वाला, काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि से मुक्त तथा प्राणियों पर दया करने वाला होना चाहिए।
(4) संन्यासाश्रम – आश्रम व्यवस्था का अन्तिम चरण संन्यासाश्रम था। 75 वर्ष की आयु तक वानप्रस्थाश्रम में निवास करने के पश्चात् मनुष्य अन्तिम आश्रम संन्यास में प्रवेश करता था। इस अवस्था में वह सब कुछ त्याग देता था और एकाकी संन्यासियों का सा जीवन व्यतीत करता था। मनु के अनुसार, “आयु के तीसरे भाग को वन में व्यतीत करके आयु के चौथे भाग में प्रवेश करते ही व्यक्ति सभी का साथ छोड़कर परिव्राजक हो जाए।” जगत के प्रति राग- अनुराग का पूर्णत: त्याग करके संन्यास आश्रम में प्रवेश किया जाता था। संन्यासी से यह आशा की जाती थी कि वह धैर्यपूर्वक कठोर वचन सुनने के लिए तैयार रहे तथा तिरस्कार के बदले आशीर्वाद दे। संक्षेप में, मनु के अनुसार, व्यक्ति को संसार से पूर्वारिक्त होकर इस आश्रम ईश्वर की आराधना करनी चाहिए।