पंडित दीनदयाल उपाध्याय के राजनीतिक विचार

पंडित दीनदयाल उपाध्याय के राजनीतिक विचारों के प्रमुख पक्षों को निम्नलिखित रूप में स्पष्ट किया जा सकता है

(1) राज्यों का उद्देश्य तथा प्रकृति-पंडित दीनदयाल ने राज्य को राष्ट्र की सामुदायिक शक्ति का एकमात्र केन्द्र नहीं माना। उनका मत है कि समुदाय की शक्ति केवल राज्य में ही केन्द्रित नहीं मानी जानी चाहिए। उन्होंने राज्य के अतिरिक्त अन्य संस्थाओं को सुदृढ़ बनाने की आवश्यकता भी प्रतिपादित की। उनका कहना है कि विभिन्न संस्थाओं में राज्य एक महत्त्वपूर्ण संस्था है, किन्तु सर्वोपरि नहीं। इस प्रकार दीनदयाल उपाध्याय के मत में राज्य के उद्देश्य और उसके औचित्य को स्पष्ट करने के लिए कोई ऐसे आधार नहीं ढूंढे जा सकते, जो सभी स्थानों और सभी परिस्थितियों में समान रूप से लागू किए जा सकें। उनके अनुसार राज्य के उद्देश्यों की व्याख्या राष्ट्र के आदर्शों के संदर्भ में ही की जा सकती है।

(2) व्यक्ति और समुदाय के हितों के मध्य तादात्म्य-व्यक्ति और समुदाय के हितों के मध्य कोई टकराव नहीं है, ऐसा दीनदयाल जी का मानना है। उन्होंने व्यक्ति की गरिमा का समर्थन किया तथा यह प्रतिपादित किया कि व्यक्ति के व्यक्तित्व और उसकी स्वतंत्रताओं पर राज्य द्वारा मनमाने नियंत्रण नहीं लगाए जाने चाहिए। किन्तु साथ ही उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि राष्ट्र के प्रति व्यक्ति का समर्पण, स्वयं व्यक्ति के परम लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक होता है। इस दृष्टि से उन्होंने समुदाय के उत्थान को व्यक्ति के स्वयं के उत्थान के लिए आवश्यक माना। उन्होंने व्यक्ति से ‘मैं’ की बजाए ‘हम’ के संदर्भ में विचार करने की अपेक्षा की। उनके शब्दों में, ‘हम’ ही वह मूलभूत तथ्य है जो ‘मैं’ को सार्थक बनाता है। आर्थिक, नैतिक, आध्यात्मिक सभी प्रकार के विकास इसी तथ्य में निहित हैं। सामुदायिक हितों के लिए व्यक्ति के समर्पण को दीनदयाल ने धार्मिक पवित्रता का स्तर प्रदान कर दिया तथा घोषित किया, “राष्ट्रभक्ति, समाज-भक्ति ही भगवान भक्ति है।”

(3) धर्म-राज्य की धारणा-पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने ‘धर्म राज्य’ के विचार का प्रतिपादन कर, भारत में धर्म को राजनीतिक संस्थाओं की सार्थकता का मापदण्ड बताया है। उन्होंने प्राचीन भारतीय परम्परा का उदाहरण देते हुए कहा कि भारत में राज्य का आधार धर्म को ही माना गया है, इस प्रकार राज्य का अस्तित्व ही धर्म के रूप में परिभाषित मूल्यों और सिद्धान्तों को लागू करने के लिए स्वीकार किया गया। दीनदयालजी ने स्पष्ट किया कि धर्म-राज्य की उनकी संकल्पना किसी ऐसे सम्प्रदायवादी राज्य की नहीं है, जिसमें किसी विशेष पंथ के नियमों और मान्यताओं को राजनीतिक व्यवस्था का आधार मान लिया जाए तथा नागरिकों को अपने पंथ और धार्मिक विश्वासों को मानने की स्वतंत्रता ही न हो। . उन्होंने यह स्पष्ट किया कि धर्म अंग्रेजी के शब्द ‘रिलीजन’ का पर्याय नहीं है। उन्होंने धर्म को शाश्वत नैतिक मूल्यों के रूप में परिभाषित किया और यह स्पष्ट किया कि धर्म को ही भारतीय राष्ट्र का आधारभूत तत्त्व माना जा सकता है। उन्होंने घोषणा की कि भारत में संविधान को सम्प्रभु नहीं माना जा सकता, अपितु यहाँ धर्म ही सर्वप्रभुता सम्पन्न है।

(4) स्वराज्य की धारणा – दीनदयाल ने ‘स्व’ की भावना को स्वराज्य के लिए अनिवार्य माना है। उन्होंने स्वराज्य को देश का शासन स्वयं चलाने के अधिकार की संकीर्ण परिभाषा तक सीमित नहीं किया। उनके अनुसार स्वराज्य की व्याख्या में तीन अनिवार्य तत्त्व आते हैं

  • राज्य का संचालन राष्ट्रीय हितों के अनुकूल किया जाए।
  • राज्य उन लोगों द्वारा संचालित हो जो राष्ट्र के अंग हैं।
  • राज्य में राष्ट्र के हितों का संरक्षण और संवर्द्धन करने की सामर्थ्य स्वयं में हो।

इस प्रकार राजनीतिक स्वतंत्रता, राष्ट्रहित के प्रति समर्पण और स्वावलम्बन दीनदयालजी के अनुसार स्वराज्य के आवश्यक तत्त्व हैं तथा सांस्कृतिक अस्मिता का बोध उनके अनुसार स्वराज्य की पूर्व शर्त है। उन्होंने स्पष्ट रूप से घोषित किया कि यदि भारतीय विदेशी संस्कृति, विदेशी भाषा और विदेशी मूल्यों के बन्धन से मुक्त नहीं हो पाते तो स्वराज्य का व्यवहार में कोई अर्थ ही नहीं रहेगा। दीनदयाल के मत में ‘स्व-संस्कृति’ और ‘स्व-भाषा’ के प्रति गौरव का भाव स्वराज्य के सटीक आधार हैं।

(5) एकात्मक शासन का समर्थन-पंडित दीनदयाल जी ने भारत के लिए एकात्मक शासन पद्धति का ही समर्थन किया। उनका कहना है कि संघात्मक शासन भारत की राष्ट्रीयता और परम्परा के अनुकूल नहीं है। उन्होंने राजनीतिक शक्ति के विकेन्द्रीकरण की आवश्यकता तो प्रतिपादित की, तथा स्थानीय संस्थाओं को शक्तिशाली बनाकर लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण के आदर्श को यथार्थ में चरितार्थ करने पर बल दिया।

(6) प्रजातंत्र का समर्थन – पंडित दीनदयाल ने शासन की अन्य प्रणालियों की तुलना में प्रजातंत्र की श्रेष्ठता को स्वीकार किया क्योंकि यह पद्धति जनता को शासन में भागीदारी का अवसर प्रदान करती है। उनका मत है कि शाश्वत धर्म और जनहित के प्रति समर्पित शासन ही वास्तविक प्रजातंत्र माना जा सकता है। उनका कहना है कि सच्चा प्रजातंत्र वही हो सकता है जहाँ स्वतंत्रता और धर्म दोनों व्याप्त हीं।

(7) विधि के शासन में आस्था-पंडित दीनदयाल विधि के शासन के विचार में गहरी आस्था रखते थे। इस कारण वे भारत के सभी नागरिकों के विश्वास और अन्तःकरण की स्वतंत्रता का आदर करते थे, तथा राज्य द्वारा इस स्वतंत्रता को संरक्षण दिया जाना आवश्यक मानते थे इस प्रकार उनके राजनीतिक विचार एक नए भारत के निर्माण की कल्पना करते हैं।

Comments

No comments yet. Why don’t you start the discussion?

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.