कौटिल्य का मण्डल सिद्धान्त

कौटिल्य ने अपने ग्रन्थ ‘अर्थशास्त्र’ में न केवल राज्य के आन्तरिक प्रशासन के सिद्धान्तों का उल्लेख किया है वरन् उसने उन सिद्धान्तों का भी उल्लेख किया है जिनके आधार पर एक राज्य द्वारा दूसरे राज्यों के साथ अपने सम्बन्ध स्थापित किये जाने चाहिए। अन्य शब्दों में, कौटिल्य ने अपने ‘अर्थशास्त्र’ में परराष्ट्र या विदेश नीति का भी विस्तार से विवेचन किया है। उसने अन्य राज्यों के साथ व्यवहार के सम्बन्ध में दो सिद्धान्तों का विवेचन किया है-पड़ोसी राज्यों के साथ सम्बन्ध रखने के लिए ‘मण्डल सिद्धान्त तथा अन्य राज्यों के साथ व्यवहार निश्चित करने के लिए ‘षाड्गुण्य नीति’ ।

कौटिल्य का मण्डल सिद्धान्त

मण्डल सिद्धान्त का प्रतिपादन कौटिल्य ने अर्थशास्त्र के छठवें सातवें अधिकरण में किया है। इस सिद्धान्त में अनेक राज्यों के समूह या मण्डल में विद्यमान राज्यों द्वारा एक-दूसरे के प्रति व्यवहार में लायी जाने वाली नीति का विवेचन किया गया है। इसमें मण्डल केन्द्र ऐसा राजा होता है जो पड़ौसी राज्यों को जीतकर अपने में मिलाने में प्रयत्नशील रहता है। यह राजा कौटिल्य के अनुसार ‘विजिगीषु’ (विजय की इच्छा करने वाला) कहलाता है। उसने राज्यों के जिन विविध प्रकारों का वर्णन किया है, वे निम्नलिखित प्रकार के हैं

(1) अरि राज्य-कौटिल्य के मत में अरि राज्य तीन प्रकार के होते हैं—प्रकृति अरि, सर अरि और कृत्रिम अरि। जो राज्य की सीमाओं से लगा हुआ होता है उसे प्रकृति अरि कहा जाता है। सहज और राज्य के अपने ही वंश में उत्पन्न होने वाला राज्य होता है तथा जो स्वयं विरुद्ध होने या विरोध करने पर शत्रु बन जाये वह कृत्रिम अरि कहलाता है। जो राज्य पास-पास स्थित होते हैं अथवा जिनकी सीमाएँ सटी होती है, उनमें परस्पर संघर्ष की सदा सम्भावना रहती है। प्रत्येक राज्य अपने साम्राज्य का विस्तार करने के लिए पड़ौसी राज्य का क्षेत्र हड़पने का विचार रखता है। इस कारण ही पड़ौसी राज्य प्रायः परस्पर अरि राज्य कहलाते हैं।

(2) मित्र राज्य – मित्र राज्य विजिगीषु राजा का मित्र होता है और संकटकाल में उसकी सहायता करता है। कौटिल्य मित्र राज्यों को भी तीन वर्गों में विभाजित करता है-प्रकृति मित्र राज्य, सहज मित्र राज्य और कृत्रिम मित्र राज्य राजा के अपने राज्य की सीमा से सम्बद्ध वाले राज्यों को प्रकृति मित्र राज्य कहा जाता है। माता या पिता के सम्बन्धियों के राज्यों को सहज मित्र राज्य तथा धन और जीवन हेतु जब कोई राजा किसी अन्य राजा की शरण में जाता है, तो ऐसे राज्य को कृत्रिम मित्र राज्य कहा जाता है।

(3) मध्यम राज्य – कौटिल्य के मत में मध्यम राज्य विजयाकांक्षी और अरि राज्यों के मु मध्य में स्थित होता है। इसके सम्बन्ध दोनों राज्यों से होते हैं। ऐसे राज्य को अत्यधिक शक्तिशाली होना चाहिए।

(4) उदासीन राज्य – यह राज्य विजयाकांक्षी और मध्यम राज्यों से परे, अपनी शक्ति से अरि, विजिगीषु पर पृथक्-पृथक् या उन पर एक साथ अनुग्रह या निग्रह करने में समर्थ होता है।

(5) अरि-मित्र राज्य – अरि-मित्र राज्य कौटिल्य के मत में वह राज्य होता है जो विजिगीषु से शत्रुता रखने वाले पड़ौसी राज्यों के मित्र होते हैं तथा जो विजिगीषु के विरुद्ध अरि राज्य की सहायता करते हैं।

(6) मित्र-मित्र राज्य – यह वह राज्य होता है जो विजिगीषु के मित्र राज्य का मित्र होने के कारण विजिगीषु का सहायक होता है।

(7) अरि-मित्र मित्र राज्य – वे राज्य जो विजिगीषु के शत्रु राज्य के मित्र का मित्र राज्य होने के कारण अरि राज्य का सहायक होता है l 

(8) पाष्णिगुह – यह विजिगीषु के पीठ पीछे का शत्रु होता है।

(9) आक्रन्द – यह विजिगीषु के पीठ पीछे का मित्र होता है।

(10) आकन्दासार राज्य – कौटिल्य के अनुसार यह वह राज्य होता है जो विजिगीषु के पीठ पीछे के मित्र का मित्र होता है।

इस तरह कौटिल्य के मत में 12 राज्यों में प्रत्येक की 5-5 द्रव्य प्रकृतियाँ होती हैं- अमात्य, कोष, दुर्ग, बल और राष्ट्र अतः कौटिल्य के मूल राज्य और उनकी प्रकृतियों की संख्या का कुल योग 72 होता है।

कौटिल्य का मत था कि विजय लालसा राज्य का एक प्रमुख गुण है। यदि वह उपर्युक्त नियमों पर सावधानीपूर्वक चलता रहे तो वह अन्य समस्त राज्यों पर विजय प्राप्त कर ‘चतुरान्त राजा’ बन सकता है। उसका विश्वास था कि राजा अपने पड़ौसी राजा से शत्रुता तथा उसके पड़ौसी राजा से मित्रता के सम्बन्ध रखकर अपने को सुरक्षित तथा शक्तिशाली बना सकता है। कौटिल्य के मन में राजा को सदा अपने शत्रु के मित्र से सावधान रहना चाहिए तथा अवसर मिलते ही उस पर अचानक आक्रमण कर उसे परास्त कर देना चाहिए। इसके अतिरिक्त राजा को अपने मित्र राज्यों के साथ मित्रता के सम्बन्ध रखने चाहिए और अपने शत्रु के मित्र को शत्रु के समान समझना चाहिए।

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