रवींद्रनाथ टैगोर का जीवन परिचय

रवींद्रनाथ टैगोर का जीवन परिचय

रवीन्द्र नाथ टैगोर का जन्म 7 मई, 1861 ई. को कलकत्ता (कोलकाता) के एक सुशिक्षित और सुसंस्कृत परिवार में हुआ था। इनके पिता महर्षि देवेन्द्र नाथ टैगोर थे जो बड़ी धार्मिक प्रवृत्ति के और ब्रह्म समाज में आस्था रखने वाले थे। यह परिवार समृद्धि, कला, विद्या एवं संगीत के लिए सम्पूर्ण बंगाल में प्रसिद्ध था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही अनौपचारिक रूप से हुई।

टैगोर को सर्वप्रथम ओरिएण्टल सेमेटरी स्कूल में भर्ती कराया गया लेकिन यहाँ का वातावरण पसन्द न होने के कारण यहाँ इनका मन नहीं लगा और 7 वर्ष की आयु में इनको नॉर्मल स्कूल में प्रवेश दिलाया गया। यहाँ के कृत्रिम वातावरण में समायोजन न कर सकने के कारण दो वर्ष पश्चात् इन्हें एक ईसाई विद्यालय ‘बंगाल एकादमी’ में प्रवेश दिलाया गया। इसी बीच 11 वर्ष की आयु में इनका यज्ञोपवीत संस्कार किया गया। इसी वर्ष इनके पिता इन्हें देश भ्रमण के लिए अपने साथ ले गये। इस यात्रा का इनके जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा तथा ये प्रकृति के नजदीक आये। यात्रा से वापस आने के पश्चात् इनकी शिक्षा अनौपचारिक रूप से पिता की प्रेरणा से चलती रही। अध्ययन के साथ ही ये सामाजिक, धार्मिक तथा राजनीतिक कार्यों में भी भाग लेते रहे जिससे इनमें राष्ट्रीय भावना का विकास हुआ। संस्कृत, बंगला, अंग्रेजी, चित्रकला, संगीत आदि की शिक्षा घर पर देने के लिए अलग-अलग शिक्षक नियुक्त किये गये। 1878 ई. में टैगोर अपने भाई के साथ उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंग्लैण्ड गये और 1880 तक वहाँ रहे। 1880 ई. में ये स्वदेश वापस आये तथा 1881 ई. में कानून की शिक्षा प्राप्त करने के लिए पुन: इंग्लैण्ड गये लेकिन विचार परिवर्तन के कारण पुनः स्वदेश वापस आ गये।

रवींद्रनाथ टैगोर का जीवन परिचय

भारत आने के पश्चात् इन्होंने लेखन कार्य शुरू किया। टैगोर अपने देश के पिछड़ेपन एवं पाश्चात्य देशों के विकास से प्रभावित थे अत: इनके मन में अपने देश की स्थिति को सुधारने की जिज्ञासा थी। इनकी प्रथम रचना ‘कविकला’ तथा प्रथम काव्य संग्रह ‘वनफूल’ के नाम से प्रकाशित हुआ। 1991 में इनकी पुस्तक ‘यूरोप यात्री डायरी’ प्रकाशित हुई। अब तक इन्होंने कला, साहित्य, समाज सेवा, शिक्षा और दर्शन के क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण योगदान देकर देश की महान् सेवा की तथा अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की।

टैगोर अपने समय की शिक्षा पद्धति से सन्तुष्ट नहीं थे। 1892 में इनकी “शिक्षा हेर-फेर” रचना प्रकाशित हुई है। इस कृति में उस समय के शिक्षा दोषों की इन्होंने खुलकर विवेचना की।

1883 ई. में इनका विवाह हुआ और उसके बाद इनके पिता ने इन्हें सियालदा की। जमींदारी का कार्यभार सौंपा। इस दायित्व का निर्वाह करते हुए ही इन्हें ग्रामीण परिवेश को समझने का अवसर प्राप्त हुआ। इसी बीच इनकी धर्मपत्नी का स्वर्गवास हो गया। 1901 ई. में पिता की अनुमति से कलकत्ता से लगभग 70 किमी दूर बोलपुर में ‘शान्ति-निकेतन’ नामक विद्यालय की स्थापना की जो वर्तमान में विश्वभारती विश्वविद्यालय’ के नाम से प्रसिद्ध है। यहीं पर इन्होंने स्वयं अध्यापक के रूप में कार्य कर अपने विचारों को मूर्त रूप प्रदान किया तथा ‘गीतांजलि’ कृति की रचना की जिसके लिए उन्हें ‘नोबेल पुरस्कार’ भी मिला। टैगोर जी प्रथम भारतीय थे जिन्हें यह पुरस्कार प्राप्त हुआ था। कलकत्ता विश्वविद्यालय ने उन्हें डी-लिट् की उपाधि प्रदान की। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ‘नाइटहुड’ की उपाधि से विभूषित किया। 1940 ई. में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय ने उन्हीं डी-लिट् की उपाधि दी तथा गाँधीजी ने उन्हें ‘गुरुदेव’ का सम्बोधन प्रदान किया। 7 अगस्त, 1941 ई. में इस महान् कवि, साहित्यकार का निधन हो गया।

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