राजा राममोहन राय एक महान् समाज-सुधारक थे। उनके सामाजिक विचारों को है निम्नलिखित बिन्दुओं में स्पष्ट किया जा सकता है
(1) मूर्ति-पूजा का विरोध – सर्वप्रथम राजा राममोहन राय का ध्यान मूर्ति-पूजा की ओर गया। इसका मुख्य कारण था, अनेक भक्तों का इस प्रकार की पूजा का वास्तविक लाभ न समझकर केवल अन्धी श्रद्धा समर्पित करना। इस प्रकार की पूजा का राजा राममोहन राय वेदों, उपनिषदों के सन्दर्भों के आधार पर विरोध करते थे। मूर्ति-पूजा के आरम्भ होने का कारण यह था कि ब्रह्म के प्रत्यक्ष ज्ञान को असम्भव मानकर मूर्ति-पूजा का सहारा लिया गया था और उसे आवश्यक समझा गया था। परन्तु इसके उत्तर में राजा राममोहन राय का उपनिषद्-सम्मत तर्क यह था कि केवल आत्मन की पूजा करनी चाहिये। उनका कहना था कि उपनिषद् किसी भी दशा में असम्भव बात करने की प्रेरणा नहीं देते। मूर्ति-पूजा के स्थान पर शुद्ध पूजा का उन्होंने सदैव समर्थन किया। श्रद्धा विचार के प्रति उचित है। मूर्ति के प्रति श्रद्धा से कोई लाभ नहीं ।
(2) जातिगत संकीर्णताओं का विरोध-आर्यों ने कर्म के आधार पर समाज को जातीय वर्गों में विभाजित किया था। कालान्तर में जन्म से ही जाति का निर्धारण होने लगा। इस विभाजन का समाज के लिये बड़ा विनाशकारी परिणाम हुआ। कुछ लोग श्रेष्ठ बन बैठे तथा अन्य वर्गों में से कई हेय “वं निकृष्ट समझे जाने लगे। यह संकीर्णता मुसलमान काल में बहुत बढ़ गई थी। यहाँ तक कि अंग्रेजी शासन-काल में इसका रूप बहुत ही घिनौना हो गया, इससे समाज टूटने लगा और दूसरे धर्मावलम्बियों ने इसका लाभ उठाया। राजा राममोहन राय को इसके हानिकारक फल स्पष्ट दीख पड़े और उन्होंने जातीय भेदभाव और ऊँच-नीच की भावना का डटकर विरोध किया। उनका निश्चित मत था कि जाति के आधार पर किसी को श्रेष्ठ अथवा हेय मानना पूर्णतया अनुचित और अन्यायपूर्ण है। कोई व्यक्ति अपनी उपलब्धियों, गुणों एवं मान्यताओं के आधार पर ही श्रेष्ठ माना जाना चाहिए।
(3) परम्पराओं के अन्धानुकरण का विरोध-प्रायः सभी समाजों में जो कोई कार्य एक समय किसी विशेष परिस्थिति में हो जाता है, आगे भी बिना विचार किए लोग तद्नुसार आचरण करने लगते हैं; यही है अन्धानुकरण। हिन्दू समाज भी इस सम्बन्ध में कोई अपवाद नहीं था । हिन्दुओं में अनेक बेसिर-पैर की परम्पराएँ पनप रही थीं। राजा राममोहन राय को इस अन्धानुकरण का विनाशकारी फल स्पष्ट दिखाई दिया और उन्होंने इसका प्रबल विरोध किया। यह न आवश्यक है और न उचित कि पिछली पीढ़ियाँ जिस बात को मानती थीं, उसे हम अब भी मानते रहें। कई बार तो यह भी देखा जाता है कि जिन बातों को उनकी प्राचीनता की दुहाई देकर रूढ़िवादी लोग समाज पर थोपे रहना चाहते हैं वे वास्तव में उतनी पुरानी नहीं होतीं और अनेक बार उनमें उनके मानने वालों के स्वार्थ निहित रहते हैं। विवेक के आधार पर जो श्रद्धा होती है, वही उचित होती है। जो लोग अन्धे होकर श्रद्धा करते हैं उनमें विवेक रहता ही नहीं, फलतः वे सही रूप से कार्य करने में सफल नहीं हो पाते। राजा राममोहन राय को यह तर्क एकदम सत्य प्रतीत हुआ था और इसी तर्क पर उनका अन्धानुकरण का विरोध आधारित था कि या तो हमें अतीत की भक्ति त्याग कर उन्नति के मार्ग पर अग्रसर होना होगा, या अतीत की परम्पराओं को शुद्ध रूप देना होगा तभी हमारा वर्तमान सुखी होगा तथा सुखी भविष्य की नींव पड़ेगी। राजा राममोहन राय ने केवल कहकर ही अनुचित बातों का विरोध नहीं किया वरन् अपने कार्यों से भी अपने सिद्धान्तों को सहारा दिया। समुद्र पार जाने की अनुचित वर्जना की पूर्ण अवहेलना करके वे इंग्लैंड गये और वहाँ भारतीय हितसाधन में कार्य किया।
(4) नारी के उत्थान का समर्थन-सभी अच्छे धर्मों की यह मान्यता है कि देश और समाज के पूर्ण निर्माण के लिये समाज में नारियों को सम्मानित तथा बराबर का स्थान मिलना चाहिये। आर्य जगत में ऐसा ही था। इसे सिद्ध करने के लिये जो अनेकों उदाहरण प्रस्तुत किये जा सकते हैं, वे बच्चे-बच्चे को ज्ञात हैं। जहाँ नारी की पूजा हो वहाँ देवताओं का वास बताया। गया है। परन्तु क्रूर और कामुक मुसलमानों के भारत में आने के उपरान्त यहाँ नारी की दशा हीन हो गई। वह भी सम्पत्ति के समान रक्षा करने की वस्तु बनकर रह गई। फलतः नारी का अपना स्थान उसके हाथ से जाता रहा और पर्दा तथा सती-प्रथा जैसी अमानुषिक परम्पराएँ समाज में व्याप्त हो गई।
(5) सती प्रथा का विरोध-राजा राममोहन राय इस प्रकार की बातों के विरुद्ध तो थे ही कि 1811 ई. में उनके परिवार में उनके बड़े भाई की मृत्यु के पश्चात् बड़े भाई की पत्नी की अनिच्छा होते हुए भी उसको सती किये जाने ने राजा राममोहन राय के हृदय पर भारी मर्मस्पर्शी आघात पहुँचाया। इस अमानुषिक और घृणित घटना ने राजा राममोहन राय को प्रेरित किया कि वे इस प्रथा को बन्द कराने का प्रयत्न करें। उन्होंने एतदर्थ आन्दोलन छेड़ने का निश्चय कर लिया और तब तक चैन से न बैठने की शपथ ली जब तक कि इस कुरीति को समाप्त न करा दें। राजा राममोहन राय ने निष्ठापूर्वक अपनी शपथ का पालन करते हुए आन्दोलन को दिनों-दिन तीव्रतर किया। अन्त में 4 दिसम्बर, 1829 ई. को वे अपने प्रयास में सफल हुए। लार्ड विलियम बैंटिक की सरकार ने इस प्रथा को अवैध तथा गैर-कानूनी घोषित कर दिया। केवल सती-प्रथा को रुकवाने तक ही राजा राममोहन राय ने अपने कार्य की इतिश्री नहीं समझ ली। कुछ काल से समाज में नारी की जो हीन दशा हो गई थी, उसे सुधारने के लिये वे सतत् प्रयत्नशील रहे। उन्होंने स्त्री-शिक्षा और विधवा-विवाह का समर्थन किया। साथ ही पति की सम्पत्ति में स्त्रियों के अधिकार को भी उन्होंने पूर्ण समर्थन दिया। उनके दिखाये मार्ग का अनुसरण करके ही बंगाल में पुनर्जागरण आगे बढ़ा ।