स्वामी दयानन्द सरस्वती के सामाजिक विचार

स्वामी दयानन्द सरस्वती के सामाजिक विचार

स्वामी दयानन्द के सम्बन्ध में कहा गया है कि वे उच्चकोटि के एक निर्भीक दूत एवं समाज सुधारक थे। भारत के पुनर्जागरण की शताब्दी, 19वीं शताब्दी में जागरण की ज्योति जलाने वाले महापुरुषों में अग्रगण्य स्वामी दयानन्द सरस्वती एक सच्चे महात्मा थे। वे बाल-ब्रह्मचारी एवं महान् योगी भी थे। स्वामी जी संस्कृत, अरबी, हिन्दी के प्रकाण्ड विद्वान् तथा एक ओजस्वी वक्ता थे। उनके लेखों में भी उनके वचनों का सा ही ओज विद्यमान था। स्वामी दयानन्द के सामाजिक विचारों को हम निम्नांकित सात वर्गों में बाँट सकते हैं

1. जाति प्रथा का विरोध – उन दिनों जाति प्रथा ऐसे कुमार्ग पर पड़ गई थी और उसका इतना जोर था कि सारा हिन्दू समाज छिन्न-भिन्न हो रहा था जिससे लाभ उठाने के लिये अन्य धर्मों के प्रचारक ताक लगाये बैठे थे। निम्न जाति के लोगों को उच्चवंशीय लोग हीन और अस्पृश्य समझते थे वे न तो मन्दिरों में प्रवेश पा सकते थे, न वेदों का अध्ययन ही कर सकते थे। दयानन्द ने समाज के समक्ष यह सटीक तथ्य रखा कि समाज के एक वर्ग के साथ यह सौतेला व्यवहार केवल पण्डितों और ब्राह्मणों का पाखण्ड जाल था। उनका मत था कि वेद भी सर्वसाधारण के लिये उसी प्रकार प्रकाशित हैं तथा उसी प्रकार उपलब्ध होने चाहिये जैसे परमात्मा द्वारा प्रदान की गई अन्य सब प्राकृतिक वस्तुएँ। केवल वही निर्बुद्धि एवं मूर्ख व्यक्ति शूद्र है जिसे पठन-पाठन का ज्ञान नहीं है। उन्होंने सबको समझाया कि जाति प्रथा ने हिन्दू समाज को छिन्न-भिन्न करके शक्तिहीन बना दिया था। केवल जाति प्रथा तथा अस्पृश्यता के जाल से मुक्त होकर ही समाज उन्नत और सशक्त बन सकता है। ऐसा होना अति आवश्यक है। इस हेतु दयानन्द जी ने आर्य समाज के माध्यम से महान् आन्दोलन आरम्भ किया। आगे चलकर गाँधीजी ने इस तथ्य को स्वीकार किया कि अस्पृश्यता के विरुद्ध घोषणा स्वामी दयानन्द की एक महानतम देन है और उन्होंने स्वयं भी इस आन्दोलन को भरसक आगे बढ़ाया।

2. वर्णाश्रम व्यवस्था का समर्थन – जाति प्रथा एवं अस्पृश्यता जैसी बुराइयों के प्रबल विरोधी होते हुए भी स्वामी दयानन्द वर्णाश्रम व्यवस्था को केवल सुधारना चाहते थे, समाप्त करना नहीं चाहते थे। वे केवल इतना चाहते थे कि जन्म के आधार पर वर्ण निश्चित नहीं किया जाना चाहिये, यह अनुचित है। वर्णों का आधार प्रारम्भ में भी जन्म नहीं कर्म ही था और कर्म हो होना भी चाहिये। कर्म के साथ-साथ इस बात का ध्यान रखना भी आवश्यक एवं उचित है कि उस व्यक्ति के क्या गुण हैं तथा कैसी उसकी प्रकृति है। आर्य समाज ने वर्णाश्रम व्यवस्था के बन्धनों को बहुत कुछ ढीला अवश्य कर दिया।

3. मूर्ति-पूजा का विरोध – स्वामी दयानन्द मूर्ति-पूजा के कट्टर विरोधी थे। वे मानते थे कि मूर्ति-पूजा के सहारे अन्धविश्वास और पाखण्ड बढ़ते हैं। उन्होंने मूर्ति पूजा की बहुत आलोचना की और इस प्रथा को समूल नष्ट करने का भारी प्रयत्न किया। वे मानते थे कि उनका मानव जाति का उद्धार करता है अतः पाखण्ड का वे प्रत्येक समाज में विरोध करते थे। उसके विचार से मूर्ति पूजा धर्म-विरुद्ध थी क्योंकि वेदों में मूर्ति-पूजा की आज्ञा नहीं है। पुराणों में मूर्तिपूजा को वे गप्प तथा असार मानते थे।

4. कुप्रथाओं का विरोध-वैदिक धर्म तो स्वामी दयानन्द के श्वास में व्याप्त था परन्तु और शुद्ध वैदिक धर्म वह धर्म है जो वेदों के अनुसार था, अतः वैदिक धर्म को शुद्ध रखने के लिये वे उसमें घुस आई कुप्रथाओं का विरोध करते थे और उन्हें मिटाना चाहते थे। वे बाल विवाह, दहेज-प्रथा जैसी प्रथाओं का विरोध करते थे और इसे अनुचित मानते थे कि विधवा विवाह की अनुमति न देकर महिलाओं पर बलात् वैधव्य के कष्ट को थोपा जाये। स्वामीजी ने ही सर्वप्रथम बाल विवाह के विरोध में विवाह की आयु निर्धारित करने की बात सुझाई थी। उनका निश्चित मत था कि विवाह के लिये लड़कों की आयु 25 वर्ष और लड़कियों की आयु 16 वर्ष होनी चाहिये, क्योंकि इसी अवस्था में पहुँचने पर उनके शरीर के साथ-साथ बुद्धि और विवेक भी परिपक्व हो जाते हैं। विवेकपूर्वक चुने गये जीवन साथी के साथ जीवन सुखमय रहेगा तथा उचित आयु की सन्तान स्वस्थ और पुष्ट होगी। उन्होंने दहेज-प्रथा को समाज के लिये अभिशाप बताकर उसके उन्मूलन का प्रयत्न किया तथा विधवाओं के पुनर्विवाह का समर्थन करके उनके जीवन को सुखी एवं यातनामुक्त बनाने की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम उठाया।

5. शुद्धि आन्दोलन का श्रीगणेश– मुसलमानों के राज्यकाल से ही हिन्दुओं का बलपूर्वक धर्म परिवर्तन कराया जाता रहा था। अंग्रेजों के हाथ सत्ता आने के उपरान्त ईसाई पादरियों ने सहानुभूति और प्रेम प्रदर्शन के साथ-साथ प्रलोभनों की भी सहायता ली और हिन्दुओं को ईसाई बनाना प्रारम्भ किया। निम्न जातियों के लोग जातिवाद के अतिरिक्त अज्ञान से उत्पन्न और भी अनेक कुप्रथाओं और रूढ़िवाद से त्रस्त थे ही, उन्हें धर्म परिवर्तन अपनी मुक्ति के लिये अच्छा मार्ग लगा। आर्य धर्म के रक्षक स्वामी दयानन्द का ध्यान इस ओर जाना स्वाभाविक था। हिन्दू समाज में इस सम्बन्ध में सबसे भयंकर बात यह थी कि जहाँ दूसरे धर्मावलम्बी प्रसन्न होकर हिन्दुओं को अपने समाज में स्वीकार कर लेते थे, वहाँ दूसरे धर्म से हिन्दू धर्म में आकर व्यक्ति समाज से बहिष्कृत ही रह सकता था। पहली बात तो यह कि उसके लिए हिन्दू धर्म के द्वार बन्द ही थे। इन सब बातों को ध्यान में रख कर स्वामी दयानन्द ने हिन्दू जाति का पुनर्गठन किया तथा शुद्धि आन्दोलन चलाया। स्वामीजी ने ऐसे सहस्रों भाइयों को, जो नये नये ही ईसाई या मुसलमान धर्म में गये थे, वेद मंत्रों एवं हवन द्वारा पुनः शुद्ध किया तथा हिन्दू धर्म की दीक्षा देकर समाज में प्रविष्ट कराया। इस प्रकार स्वामी जी ने वैदिक संस्कृति की रक्षा के लिये एक अति उपयोगी तथा महत्त्वपूर्ण कार्य आर्य समाज को सौंपा।

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6. शिक्षा सम्बन्धी विचार

(1) शिक्षा के लिए गुरुकुल व्यवस्था-स्वामी दयानन्द समाज का सुधार करना चाहते थे। एक विद्वान की भाँति उन्होंने समाज में प्रचलित बुराइयों के कारण को ही समाप्त करना उचित समझा। समाज में पाखण्ड तथा मूर्ति-पूजा जैसी कुरीतियाँ थीं। इन सबका कारण अन्ध-विश्वास था जो अशिक्षा के कारण फैले हुए अज्ञान के कारण समाज में पनप रहा था। अशिक्षा को समाप्त करने के लिये शिक्षा का प्रचार आवश्यक था। उसी के द्वारा हिन्दू समाज अज्ञान के अन्धकार से मुक्ति पा सकता था। स्वामी जी ने शिक्षा की ओर ध्यान दिया, परन्तु शिक्षा को उन्होंने उसके सम्पूर्ण व्यापक अर्थ में लिया। केवल पढ़ना-लिखना जानने को शिक्षा नहीं मान लिया। वे मानते थे कि शिक्षा का अर्थ बौद्धिक विकास तो है ही, साथ ही शारीरिक दुर्बलता से मुक्ति तथा इन्द्रिय साधना भी है। जिसे शिक्षा से ये तीनों गुण मिले हों वह ही वास्तव शिक्षित माना जा सकता है। शिक्षा से उनका तात्पर्य पाश्चात्य शिक्षा से नहीं था। वे पाश्चात्य शिक्षा तथा शिक्षा पद्धति को भारतीयों के लिये घातक मानते थे। उनके विचार से भारतीयों के उत्थान के लिए गुरुकुल पद्धति ही सर्वश्रेष्ठ शिक्षा पद्धति थी और इसी का उन्होंने समर्थन तथा प्रचार किया। गुरुकुल में रहकर विद्यार्थी के दो मुख्य कर्त्तव्य होने चाहिए—पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन तथा सम्पूर्ण विषयों का ज्ञानार्जन। यह सच्चरित्र गुरु द्वारा ही सम्भव था।

(2) अनिवार्य शिक्षा हो-महर्षि दयानन्द ने शिक्षा पर विशेष जोर दिया। उनका कहना था कि बच्चे के जीवन के प्रारम्भ में पाँच वर्ष में माँ का योगदान सबसे बड़ा है। माँ को चाहिए कि वह बच्चे को ठीक से उच्चारण करना सिखाए। उसके बाद बच्चा पाठशाला जाए जहाँ से वह 25 वर्ष तक शिक्षा प्राप्त करके निकले। उनका मत था कि शूद्रों को भी वेद-पठन का पूरा अधिकार है और स्त्रियों को भी वेद शास्त्र तथा अन्य विज्ञान विधिाएँ पढ़ाई जाएँ ताकि वे न केवल अपना वैवाहिक जीवन सुख से बिता सकें अपितु प्राचीन भारत की विदुषी स्त्रियों की तरह अपने जीवन में प्रगति पथ पर अग्रसर हो सकें। शिक्षा में दयानन्द सरस्वती का सबसे अधिक जोर शिक्षा के नैतिक पक्ष पर था। उनका कहना था कि शिक्षक और शिक्षण संस्था का सबसे बड़ा कार्य शिक्षार्थी के अन्दर सत्य के प्रति अदम्य उत्साह भरना है। दयानन्द सरस्वती ने इस बात को जोर देकर कहा है कि जब तक हर वर्ग के स्त्री-पुरुष पूरी तरह शिक्षित नहीं होंगे तब तक देश की उन्नति की कोई आशा नहीं की जा सकती। शिक्षा प्रगति की कुंजी है। दयानन्द सरस्वती ने इस बात को किसी भी समाज के लिए जरूरी बताया कि वर्ण जन्म से न होकर कर्म से हो। दयानन्द सरस्वती अनिवार्य शिक्षा के पक्षधर थे। दयानन्द ने ऐसी शिक्षा पद्धति अपनाने पर बल दिया, जो पूर्ण रूप से राष्ट्रीय हो और जो ऐसे नागरिक उत्पन्न करे जिनमें समाज के प्रति कर्तव्यपरायणता और उत्तरदायित्व की भावना विद्यमान हो।

(3) नारी-शिक्षा तथा अधिकारों का समर्थन-बर्बर एवं कामुक मुसलमानों के शासन काल में नारी एक सम्पत्ति-मात्र बनकर रह गई थी। समाज में अशिक्षा और अज्ञान के कारण उसका स्थान और गिर गया था। उसे पुरुष से हीन और उसकी दासी समझा जाने लगा था। वेदों में नारी के सम्बन्ध में कहा गया है कि जहाँ नारी की पूजा होती है वहाँ देवता निवास करते हैं और अब उसी भारत में नारी की यह दुर्दशा हो रही थी। इस दशा से मर्माहत होकर स्वामी जी ने निश्चय किया कि नारी के उत्थान के लिये कोई रचनात्मक कार्य किया जाए। इसी उद्देश्य से उन्होंने आन्दोलन आरम्भ किया। पर्दा प्रथा तथा नारी की उपेक्षा का विरोध किया। वे इसके लिये सचेष्ट एवं प्रयत्नशील हो गए कि नारी अशिक्षा के अन्धकार से मुक्त हो तथा उसे दासी मात्र न समझा जाए एवं उचित सम्मान दिया जाए। आर्य समाज ने कन्या स्कूल खोलने तथा स्त्री-शिक्षा का प्रचार करने का जो कार्य तब प्रारम्भ किया वह आज भी निरन्तर हो रहा है। आर्य समाज ने स्त्रियों को समाज में उचित स्थान दिलाने के उद्देश्य से बाल-विवाह एवं दहेज-प्रथा आदि के विरुद्ध आन्दोलन चलाया।

(4) हिन्दी भाषा जरूरी- दयानन्द ने देश की एकता के प्रसंग में भी शिक्षा को महत्त्वपूर्ण माना और इस बात का प्रतिपादन किया कि देश को एकता के सूत्र में पिरोने के लिए पूरे देश में हिन्दी भाषा का प्रचलन आवश्यक है।

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