स्वामी दयानन्द सरस्वती के धार्मिक विचार 

स्वामी दयानन्द सरस्वती के धार्मिक विचार 

स्वामी दयानन्द मूल रूप से एक धार्मिक चिन्तक अथवा धर्म के प्रवर्तक थे। उनके प्रमुख धार्मिक विचार निम्न लिखित हैं –

1. एकेश्वरवाद तथा ईश्वर के निराकार स्वरूप में आस्था-दयानन्द की ईश्वर में दुष्ण निष्ठा थी। उन्होंने बताया कि वेदों ने ईश्वर को अद्वितीय अर्थात् ‘एक ही’ बताया है। दूसरा ईश्वर होने का निषेध किया है। दयानन्द के अनुसार सृष्टि के तीन मूल कारण ईश्वर, जीव एवं प्रकृति । ये तीनों सृष्टि के अनादि कारण हैं। ये तीनों अनन्त भी हैं अर्थात् का कभी अन्त नहीं होता है। इस प्रकार ये तीनों ही सत्य हैं। दयानन्द ने ईश्वर को सृष्टि र्माण, पालन एवं संहारकर्ता बताया है। एकेश्वरवाद तथा ईश्वर के निराकार स्वरूप में सहज आस्था होने के कारण दयानन्द ने हिन्दू धर्म में प्रचलित बहुदेववाद और अवतारवाद का घोर विरोध किया तथा इन्हें वेद-विरुद्ध, अप्रामाणिक व विकृत प्रवृत्तियाँ बतलाया ।

2. मूर्तिपूजा का विरोध – दयानन्द ने मूर्तिपूजा को जड़पूजा कहा है, क्योंकि वे मूर्ति-पूजा. हे स्वाभाविक विरोधी थे। दयानन्द के अनुसार मूर्ति-पूजा वेद-विरुद्ध है तथा इसका कोई प्रामाणिक एवं तार्किक आधार नहीं है।

दयानन्द ने मूर्तिपूजा में निम्नलिखित दोष बताए हैं – 

(1) मूर्ति पूजा नास्तिक कर्म है। 

(2) मूर्ति के द्वारा आध्यात्मिक एकता की प्राप्ति असम्भव है। 

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(3) मूर्ति में ईश्वर की प्राण-प्रतिष्ठा की धारणा मूर्खतापूर्ण है। 

(4) भक्त श्रद्धापूर्वक अपनी चेतना को मूर्ति के आगे अर्पित कर देता है और उसकी बुद्धि जड़ हो जाती है। 

(5) मूर्तिपूजा से | एक ही धर्म के अनुयायियों में धार्मिक मतभेद एवं अज्ञान की वृद्धि होती है। 

(6) ऐतिहासिक दृष्टि से मूर्तिपूजा से देश को हानि हुई है। 

(7) मूर्तिपूजा से भ्रमित व्यक्ति देश-देशान्तर के मन्दिरों की यात्रा करते हैं और दुःख पाते हैं। 

(8) मूर्तिपूजा पर्यावरण के लिए हानिकारक है। इन सब कारणों से दयानन्द ने मूर्तिपूजा का विरोध किया है। 

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3. सार्वभौमिक धर्म का समर्थन-दयानन्द ने मानव मात्र के कल्याण के लिए सार्वभौमिक धर्म की धारणा पर बल दिया है. जिसे उन्होंने ‘सर्वतन्त्र सिद्धान्त’ अथवा ‘सनातन नित्य धर्म’ कहा है। उनकी मान्यता के अनुसार धर्म वह है जो तीनों कालों में एक जैसा मानने योग्य हो । धर्म वह है जिसे सत्यमानी, सत्यवादी, सत्यकारी, परोपकारी विद्वान मानते हों, वही सबको स्वीकार हो। दयानन्द ने जीवन के प्रति मनुष्य के मर्यादित और सन्तुलित दृष्टिकोण को ही धर्म की संज्ञा दी है।

4. वेद एवं उनके अनुपूरक आर्ष ग्रन्थों को ही मान्यता– दयानन्द ने वेदों के महत्त्व को प्रकट करते हुए कहा है कि वेद सब सत्य विधाओं की पुस्तक है, वेद को पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है। दयानन्द ने वेदों के अतिरिक्त विभिन्न आर्ष-ग्रन्थों को भी मान्यता दी है। इस विषय में उनकी स्पष्ट मान्यता है कि जहाँ वेद स्वयं में प्रमाण हैं, वहाँ ही इन आर्ष ग्रन्थों को केवल उस सीमा तक स्वीकार किया जा सकता है, जिस सीमा तक वे वेदों के अनुकूल हों।

5. अन्य धर्मों के प्रति दृष्टिकोण– दयानन्द के अनुसार चार्वाक, जैन व बौद्ध धर्म मूलतः ईश्वररहित, वेद-निन्दक तथा मात्र भौतिक मत हैं। अतः अनुकरणीय नहीं हैं। स्वामीजी ने ईसाई व इस्लाम धर्मों की उन मान्यताओं का भी खण्डन किया है, जो सत्य से मेल नहीं खाती हैं। दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश नामक ग्रन्थ में बताया है कि उन्होंने हिन्दू धर्म, ईसाई धर्म, इस्लाम धर्म आदि-आदि धर्मों की असत्य धारणाओं का खण्डन इस उद्देश्य से किया है कि समस्त मानव-समाज के हित में वृद्धि हो, उनका उद्देश्य किसी का मन दुखाना अथवा किसी की हानि करना नहीं है। जब सभी अपने धर्मों की असत्य बातों का त्याग करेंगे तो इससे मनुष्यों में प्रेम-भाव की वृद्धि होगी।

6. आन्दोलन की शुरुआत– दयानन्द ने आधुनिक युग में वैदिक धर्म के विस्तार के लिए शुद्धि-संस्कार की शुरुआत की और उनके द्वारा स्थापित आर्य समाज ने इसे एकआन्दोलन का रूप दे दिया। इस आन्दोलन की प्रमुख बातें निम्नलिखित थीं—

(1) यह इस्लाम व ईसाई धर्मों के विस्तारवाद के विरुद्ध एक जवाबी कार्यवाही थी।

(2) इस आन्दोलन का प्रमुख उद्देश्य ऐसे सभी पुराने हिन्दुओं को पुनः हिन्दू धर्म अपनाने का अवसर देना था जो भय, लालच या सामाजिक बहिष्कार के कारण विधर्मी हो गए थे।

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संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि धार्मिक चिन्तन के क्षेत्र में स्वामी दयानन्द की सफलता का राज इस तथ्य में निहित है कि वे आधुनिक युग के पहले भारतीय थे जिन्होंने पाश्चात्य शिक्षा तथा संस्कृति से प्रभावित युवक वर्ग को इस सत्य से परिचित कराया कि भारत के सर्वोत्कृष्ट धार्मिक चिन्तन में रूढ़ियों, अन्धविश्वासों तथा अबौद्धिक मान्यताओं के लिए कोई स्थान नहीं है और इसलिए इनके त्यागने पर भी हिन्दू धर्म पूर्णतः सुरक्षित है। रोम्या रोलां के शब्दों में, “शंकराचार्य के बाद दयानन्द के समान विलक्षण बौद्धिक क्षमता वाला कोई अन्य महापुरुष उत्पन्न नहीं हुआ है।”

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