बाल गंगाधर तिलक के राजनीतिक विचार

बाल गंगाधर तिलक के राजनीतिक विचार

तिलक के राजनीतिक विचार निम्नलिखित थे – 

1. राष्ट्रीय जागरण के समर्थक- तिलक ने भारतीयों की धर्म और आत्मगौरव की भावनाएँ अंकुरित कीं। ‘गणपति महोत्सव’ तथा ‘शिवाजी जयन्ती’ समारोहों का आयोजन करके उन्होंने जनमानस में नवचेतना का संचार किया। तिलक, शिवाजी को अपना प्रेरणा स्रोत मानते थे। क्योंकि वे शिवाजी को देशभक्ति एवम् राष्ट्रीय एकता का जनक मानते थे। उन्होंने शिवाजी का आदर्श प्रस्तुत करके लोगों को स्वराज्य की स्थापना के लिए प्रेरित किया।

2. उग्रवाद के प्रतिनिधि- सन् 1907 में सूरत अधिवेशन में कांग्रेस उम्र और नरम दलों में विभाजित हो गई। उग्रवादी विचारधारा होने के कारण तिलक ने ‘उग्रदल’ का नेतृत्व सम्भाला। उन्होंने प्रार्थना और याचना द्वारा सुधार करने के स्थान पर कर्मक्षेत्र में उतरकर जनता का प्रतिनिधित्व किया उनकी नीति सुधार की न होकर भिडन्त की थी। उनका प्रयास विदेशियों को जीतने का न होकर उन्हें हटाने का था। तिलक का उद्देश्य स्व-शासन प्राप्त न करके स्वराज्य को प्राप्त करना था जिसे वे अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानते थे। उनके द्वारा सम्पादित पत्र-पत्रिकों ने समस्त देश में उग्र विचारों का खुलमखुल्ला प्रचार और प्रसार किया, जिसके कारण उन्हें कई बार जेल यात्राएँ करनी पड़ीं। तिलक की उग्रवादी नीति साहस और निर्भयता पर आधारित थी। उनके साहसिक प्रयत्नों से देश में प्रबुद्ध और जागरूक राजनैतिक चेतना का उद्भव हुआ।

3. तिलक की स्वराज्य सम्बन्धी धारणा- “स्वराज्य मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा।” सर्वप्रथम की गई इस उद्घोषणा से भारत भावात्मक गूंज से भर गया। उनकी भाषा की हिंसा से उदारवादी उन्हें सन्देह की दृष्टि से देखते थे। उन्होंने सरकार के समक्ष कभी कुछ भी याचना नहीं की। उनका मत था कि स्वराज्य मांगने से नहीं मिलता, इसके लिए त्याग, बलिदान और जनशक्ति का सहयोग आवश्यक है। उन्होंने पत्र-पत्रिकाओं द्वारा जन-जीवन को स्वतन्त्रता के प्रति चेतनामय बनाया। वे ‘स्वराज्य’ को स्वतन्त्रता की प्रथम सीढ़ी समझते थे। वास्तव में वे पूर्ण स्वतन्त्रता के समर्थक थे। तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों को देखते हुए विशेष रूप से जनता का समर्थन प्राप्त करने के लिए उन्होंने स्वराज्य को अपना लक्ष्य बनाया। तिलक का कहना था कि स्वराज्य दिया नहीं जाता वरन् प्राप्त किया जाता है। आज तक पराधीन देश केवल अपने बाहुबल एवम् आत्मबल से ही स्वराज्य को प्राप्त कर सके हैं। अतः उन्होंने अपनी शक्ति का विकास करने के लिए जनता को प्रेरित किया।

 4. तिलक द्वारा व्यावहारिक साधनों का प्रयोग – यथार्थवादी होने के कारण तिलक ने स्वराज्य प्राप्ति के लिए निम्नलिखित साधनों का समर्थन किया –

(1) राष्ट्रीय भावनाओं को जागृत करने के लिए सर्वप्रथम तिलक ने अपना माध्यम ‘राष्ट्रीय शिक्षा’ को बनाया। शिक्षित नवयुवक ही स्वराज्य प्राप्ति के लिए संघर्ष कर सकते हैं। 

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(2) तिलक ने स्वराज्य प्राप्ति के लिए ‘स्वदेशी आन्दोलन’ को एक अन्य शक्तिशाली साधन के रूप में प्रयोग किया। उन्होंने स्वदेशी का खूब प्रचार किया ताकि भारत आत्मनिर्भरता को ओर बढ़ सके।

(3) विदेशी बहिष्कार के लिए उन्होंने स्थान-स्थान पर आन्दोलन किया। इन आन्दोलनों द्वारा वे विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करते रहे। दफ्तरों, न्यायालयों और संस्थाओं के बहिष्कार द्वारा उन्होंने विदेशी सरकार को यह अहसास कराया कि उन्हें शासन का अनिवार्य अंग मानना पड़ेगा।

(4) जनता में राजनीतिक जागृति उत्पन्न करने के लिए तिलक ने ‘सक्रिय विरोध’ की नीति अपनाई । समाचार पत्रों, जुलूसों और सभाओं के माध्यम से उन्होंने अंग्रेजी सरकार की कटु आलोचना की।

5. स्वदेशी, बहिष्कार और राष्ट्रीय शिक्षा के समर्थक- लार्ड कर्जन की अनुदारवादी नीतियों के प्रतिक्रिया स्वरूप ही उग्रवाद का विकास हुआ। ‘विश्वविद्यालय एक्ट’ और ‘कारपोरेशन एक्ट’ ने कर्जन की साम्राज्यवादी नीति को स्पष्ट कर दिया। सन् 1904 के बंगाल विभाजन का तो उदारवादियों ने भी विरोध किया। तिलक ने स्वदेशी प्रचार और विदेशी बहिष्कार के प्रचारार्थ अन्य कार्यक्रमों के साथ ही विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। उन्होंने स्वदेशी आन्दोलन के समर्थन में ही ‘गणपति उत्सव’ का आयोजन किया। स्वदेशी आन्दोलन से तिलक का आशय आत्मविश्वास, आत्मनिर्भर और आत्मसम्मान के आन्दोलन से था। तिलक ने इस आन्दोलन को भरसक सफल बनाने के लिए मन्दिर, मस्जिद और सार्वजनिक स्थानों का प्रयोग किया। उनका मत था कि स्वदेशी आन्दोलन बहिष्कार के अभाव में सफल नहीं हो सकता। इसके लिए उन्होंने सार्वजनिक संस्थानों, अदालतों और प्रशासनिक दफ्तरों का भी बहिष्कार किया। बहिष्कार के माध्यम से वे सरकार को यह बताना चाहते थे कि उनके बिना प्रशासनिक कार्य सुचारु रूप से चलना असम्भव है। उदारवादियों ने अंग्रेजी शिक्षा को सहर्ष स्वीकार कर लिया था लेकिन तिलक इससे भी असन्तुष्ट थे। तिलक राष्ट्रीय शिक्षा की व्यवस्था करना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने ‘न्यू इंगलिश स्कूल’ एवम् ‘फर्ग्यूसन कॉलेज’ की स्थापना की। राष्ट्रीय शिक्षा के पाठ्यक्रम में उन्होंने ईसाई पादरियों के बढ़ते हुए प्रभाव को रोकने के लिए धर्म को भी सम्मिलित किया। देश के नागरिकों को जीविकोपार्जन के योग्य बनाने के लिए उद्योग, वाणिज्य एवम् तकनीकी शिक्षा की भी उनमें व्यवस्था की। तिलक चाहते थे कि एक स्वतन्त्र देश की भाँति हमारी शिक्षा भी हमारी मातृभाषा के माध्यम से ही दी जानी चाहिए। वे शिक्षा में हिन्दी भाषा को प्रथम और अंग्रेजी भाषा को गौण स्थान देना चाहते थे। इस प्रकार तिलक पहले नेता थे जिन्होंने राष्ट्र भाषा के महत्त्व को समझ कर ‘देवनागरी हिन्दी’ को राष्ट्रीय भाषा बनाने का प्रयास किया।

6. राष्ट्रीय एकता के समर्थक – हिन्दू धर्म में पूर्ण आस्था होते हुए भी तिलक पूर्ण सहिष्णु थे। साम्प्रदायिक भावना से उन्हें घृणा थी। बम्बई में हुए हिन्दू-मुस्लिम दंगे से वे क्षुब्ध हुए। यद्यपि ‘गणपति उत्सव’ और ‘शिवाजी उत्सव’ मनाने से मुसलमान तिलक के विरोधी हो गये थे | अंग्रेजों ने इसका लाभ उठाया। उनकी ‘फूट डालो और शासन करो’ (Divide and Rule) की नीति के कारण हिन्दू और मुसलमानों में वैमनस्य पैदा हो गया था। लेकिन कुशल राजनीतिज होने के कारण बंगाल-विभाजन के समय स्वदेशी नारा लगा कर और बहिष्कार आन्दोलन में उन्हें सम्मिलित करके मुसलमानों को भी समान अधिकार दिया। तिलक देश की अखण्डता और एकता में आस्था रखते थे, इतने महान देशभक्त साम्प्रदायिक संकीर्णताओं में किसी प्रकार भी बंध नहीं सकते थे।

लोकमान्य तिलक का जीवन संघर्षपूर्ण होते हुए भी वे सच्चे राष्ट्रवादी सिद्ध हुए। उन्होंने अपने उग्रवादी विचारों और प्रभावशाली कार्यक्रमों द्वारा राजनीतिक जागरण के नवीन युग का निर्माण किया। तिलक ‘जैसे को तैसा’ की नीति को मानने वाले थे। वे बडे निर्भीक स्वभाव के थे। शिरोल ने उन्हें ‘भारतीय असन्तोष का जनक’ कहा था। वस्तुतः वे भारतीय नौजवानों के हृदय सम्राट, पक्के देशभक्त, उग्रवादी तथा राष्ट्रीय जन-चेतना के उम्र दूत थे।

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