राजनीति व राष्ट्रवाद का आधार धर्म – विवेकानन्द राजनीतिक आन्दोलन के पक्ष में नहीं थे फिर भी उनकी इच्छा थी कि एक शक्तिशाली, बहादुर और गतिशील राष्ट्र का निर्माण हो वे धर्म को राष्ट्रीय जीवनरूपी संगीत का स्थायी स्वर मानते थे। हीगल के समान उनका विचार था कि प्रत्येक राष्ट्र का जीवन किसी एक तत्त्व की अभिव्यक्ति है। उदाहरण के लिए, धर्म भारत के इतिहारा का एक प्रमुख निर्धारक तत्त्व रहा है। स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में, “जिस प्रकार संगीत में एक प्रमुख स्वर होता है, वैसे ही हर राष्ट्र के जीवन में एक प्रधान तत्त्व हुआ करता है। अन्य सभी तत्त्व इसी में केन्द्रित होते हैं। प्रत्येक राष्ट्र का अपना तत्त्व है अन्य सभी वस्तुएँ गौण हैं। भारत का तत्त्व धर्म है। समाज-सुधार तथा अन्य सब कुछ गौण है।” अन्य शब्दों में, विवेकानन्द ने राष्ट्रवाद के धार्मिक सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। उनका विश्वास था कि धर्म ही भारत के राष्ट्रीय जीवन का प्रमुख आधार बनेगा। उनके विचार में किसी राष्ट्र को गौरवशाली, उसके अतीत की महत्ता की नींव पर ही बनाया जा सकता है । अतीत की उपेक्षा करके राष्ट्र का विकास नहीं किया जा सकता । वे राष्ट्रीयता के आध्यात्मिक पक्ष में विश्वास करते थे। उनका विचार था कि भारत में स्थायी राष्ट्रवाद का निर्माण धार्मिकता के आधार पर ही किया जा सकता है। विवेकानन्द का दृढ़ मत था कि आध्यात्मिकता के आधार पर ही भारत का कल्याण हो सकता है। उन्होंने अपने एक व्याख्यान में स्पष्ट शब्दों में कहा था- भारत में विदेशियों को आने दो, शस्त्रबल से जीतने दो, किन्तु हम भारतीय अपनी आध्यात्मिकता से समस्त विश्व को जीत लेंगे। प्रेम, घृणा पर विजय प्राप्त करेगा। हमारी आध्यात्मिकता पश्चिम को जीतकर रहेगी l
एक अन्य व्याख्यान में उन्होंने कहा था-“इंग्लैण्ड में जीवन शक्ति राजनीतिक अधिकार है, लेकिन भारत में धार्मिक जीवन ही जातीय जीवन का केन्द्र स्वरूप है। भारत में समाज सुधार का प्रचार करने के लिए नवीन सामाजिक प्रथा के द्वारा आध्यात्मिक जीवन को प्राप्त करना होगा। राजनीति का प्रचार करने पर भी हमारे जातीय जीवन को प्रधान आध्यात्मिक उन्नति अधिक सिद्ध होगी। भारत का पहला नाम धर्म प्रचार है। भारत में चाहे जिस किसी तरह के सुधार व उन्नति की चेष्टा की जाए, परन्तु धर्म प्रचार आवश्यक है। भारत को सामाजिक व राजनीतिक भावों से भरना होगा। “
स्वतन्त्रता को महत्त्व देना – विवेकानन्द का स्वतन्त्रता विषयक सिद्धान्त अत्यन्त व्यापक था। उनका मत था कि समस्त विश्व अपनी अनवरत गति के माध्यम से मुख्यतया स्वतन्त्रता की ही खोज कर रहा है। मनुष्य का विकास स्वतन्त्रता के वातावरण में ही सम्भव है। उनके शब्दों में, “शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक स्वतन्त्रता की ओर अग्रसर होना तथा दूसरों को उसकी ओर अग्रसर होने में सहायता देना मनुष्य का सबसे बड़ा पुरस्कार है। जो सामाजिक नियम इस स्वतन्त्रता के विकास में बाधा डालते हैं वे हानिकारक हैं और उन्हें शीघ्र नष्ट करने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। उन संस्थाओं को प्रोत्साहन दिया जाए जिनके द्वारा मनुष्य स्वतन्त्रता के मार्ग पर “अग्रसर होता है। ” विवेकानन्द के अनुसार स्वतन्त्रता का तात्पर्य मनचाहा आचरण करना नहीं है यद्यपि वे मनुष्य के प्राकृतिक अधिकारों के समर्थक थे। उनके विचार में-“स्वतन्त्रता का निश्चय ही यह अर्थ नहीं है कि यदि मैं और आप किसी की सम्पत्ति को हड़पना चाहें तो हमें ऐसा करने से न रोका जाए। किन्तु प्राकृतिक आधार का अर्थ यह है कि हमें अपने शरीर, बुद्धि और धन का प्रयोग अपनी इच्छानुसार करने दिया जाए और हम दूसरों को कोई हानि न पहुँचाएँ, और समाज के सभी सदस्यों को धन, शिक्षा तथा ज्ञान प्राप्त करने का समान अधिकार हो।” स्वतन्त्रता के सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट करने का उद्देश्य अप्रत्यक्ष रूप में भारतवासियों को स्वतन्त्रता का अर्थ और महत्त्व समझाना था।
शक्ति सृजन और निर्भयता का सन्देश देना – विवेकानन्द की सबसे प्रमुख देन भारतीयों को शक्ति सृजन और निर्भयता का सन्देश देना था। वे अत्यन्त साहसी, निर्भीक और शक्तिशाली व्यक्ति थे। जब देश परतन्त्रता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था और भारतीय जनमानस हीनता तथा भय की भावनाओं से पूर्णतया ग्रस्त था उस समय विवेकानन्द ने सुप्त तथा पददलित भारतीय जनता को शक्ति सृजन और निर्भयता का मन्त्र दिया। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में घोषणा की कि “शक्ति के अभाव में न तो हम व्यक्तिगत अस्तित्व को स्थिर रख सकते हैं और न ही अपने अधिकारों की रक्षा कर सकते हैं।” उनके अनुसार, “शक्ति ही धर्म है। मेरे धर्म का सार शक्ति है। जो धर्म हृदय में शक्ति का संचार नहीं करता वह मेरी दृष्टि में धर्म नहीं .शक्ति धर्म से भी बड़ी वस्तु है और शक्ति से बढ़कर कुछ नहीं।” स्वामीजी का कथन था कि प्रत्येक भारतवासी को ज्ञान, चरित्र तथा नैतिकता की शक्तियों का सृजन करना चाहिए। किसी राष्ट्र का निर्माण व्यक्तियों से होता है, अतः व्यक्तियों को अपने में पुरुषत्व, मानव गरिमा तथा स्वाभिमान आदि श्रेष्ठ गुणों का विकास करना चाहिए।
विवेकानन्द ने शक्ति के सृजन के साथ भारतवासियों को निर्भय रहने का भी सन्देश दिया। उन्होंने निर्भयता के सिद्धान्त को दार्शनिक आधार पर उचित ठहराया। उनका मत था कि आत्मा का लक्षण सिंह के समान है अतः मनुष्य को भी सिंह के समान निर्भय होकर आचरण करना चाहिए। उन्होंने भारतवासियों को सम्बोधित करते हुए कहा- “हे वीर, निर्भीक बनो साहस धारण करो, इस बात पर गर्व करो कि तुम भारतीय हो और गर्व के साथ घोषणा करो कि मैं भारतीय हूँ और प्रत्येक भारतीय मेरा भाई है।” उनके ये शब्द सोये हुए भारतवासियों को जगाने के लिए अत्यन्त सामयिक और महत्त्वपूर्ण थे। जिस समय देश की जनता निराशा में डूबी दयनीय जीवन व्यतीत कर रही थी उस समय शक्ति और निर्भीकता का सन्देश देना उनकी प्रखर बुद्धि का एक ज्वलन्त उदाहरण है।
देशभक्ति की प्रेरणा देना – स्वामी विवेकानन्द में राष्ट्रभक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी। वे भारतवासियों को मातृ-भूमि के लिए अपना सब कुछ लुटाने के लिए कहते थे। उनका कहना था-“मेरे बन्धु बोलो, भारत की भूमि मेरा परम स्वर्ग है, भारत का कल्याण मेरा कल्याण है और दिन-रात जपो और प्रार्थना करो, हे गिरीश्वर, हे जगज्जननी, मुझे पुरुषत्व प्रदान करो।” एक अन्य स्थल पर उन्होंने कहा कि-“अगले पचास वर्षों तक भारत माता को छोड़कर हमें और किसी का ध्यान नहीं करना है। भारत माता को छोड़कर और सभी देवता झूठे हैं। उन्हें अपने मन से निकाल कर फेंक दो। यही देवी, हमारी जाति की वास्तविक देवी है। सर्वत्र उसके पाँव विराजमान हैं, सर्वत्र उसके कान हैं और सब कुछ पर उसी देवी का प्रतिबिम्ब छाया हुआ है। बाकी जितने देवता हैं, नीचे से हैं। यह विराट देवता हमारे सामने प्रत्यक्ष है। इसे छोड़कर हम और किस देवता की पूजा करेंगे।” डॉ. वर्मा के शब्दों में, “बंकिम की भाँति विवेकानन्द भी भारत माता को एक आराध्य देवी मानते थे और उसकी देदीप्यमान प्रतिभा की कल्पना और स्मरण से उनकी आत्मा जगमगा उठती थी। यह कल्पना कि भारत देवी माता की दृश्यमान विभूति है, बंगाल के राष्ट्रवादियों और क्रांतिकारियों की रचनाओं तथा भाषणों में आधारभूत धारणा रही है। उनके लिए देशभक्ति एक शुद्ध और पवित्र आदर्श था।”
व्यक्ति की गरिमा को महत्त्व देना – स्वामी विवेकानन्द के अनुसार राष्ट्र का निर्माण व्यक्तियों से होता है। ऐसी दशा में आवश्यक है कि राष्ट्र के समस्त व्यक्ति मानव गरिमा, पुरुषत्व तथा आत्मसम्मान की भावना आदि सद्गुणों को अपने अन्दर विकसित करें। केवल राष्ट्र का गुणगान करने मात्र से ही काम नहीं चलेगा। आवश्यकता राष्ट्र के घटक व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व को निर्मित करने की है। यदि राष्ट्र के घटक व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का निर्माण उचित प्रकार से कर लेंगे तो राष्ट्र का उत्थान भी स्वतः हो जाएगा। प्राचीन भारत में राष्ट्र का निर्माण व्यक्ति के आध्यात्मिक आदर्शों के आधार पर ही किया गया था। अतः आज भी इन श्रेष्ठ आदर्शों को पुनः प्रतिपादित करना आवश्यक है।
अधिकारों की अपेक्षा कर्तव्यों को महत्त्व देना – विवेकानन्द अधिकारों की अपेक्षा कर्त्तव्यों को महत्त्व देते थे। उनका विचार था कि वर्तमान काल में विश्व के विभिन्न वर्गों में अधिकारों के लिए संघर्ष चलता रहता है जिससे समाज में निरन्तर संघर्ष बना रहता है। अतः आधुनिक युग में अधिकारों की अपेक्षा कर्तव्यों को विशेष महत्त्व दिया जाना चाहिए।